आपातकाल की ५०वी वर्षगांठ: भारतीय राजनीतिक इतिहास में अधिनायकवादी शासन की पराकाष्ठा!

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भारत में सन् 1975-1977 ई. का आपातकाल (Emergency) असहज कर देने वाले एक ऐसे गंभीर अध्याय के रूप में अवस्थित है, जिसने देश के लोकतांत्रिक आदर्शों पर अधिनायकवादी शासन व्यवस्था की काली छाया डाल दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा शुरू की गई यह अवधि, मौलिक अधिकारों के हनन और व्यापक राजनीतिक दमन से चिह्नित, स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद निर्णयों में से एक बनी हुई है। यह आलेख उसी आपातकाल (Emergency) के बहुआयामी विविध पहलुओं पर व्यापक प्रकाश डालता है, साथ ही इसके ऐतिहासिक संदर्भ, इसके लागू होने के कारण, मौलिक अधिकारों का निलंबन, मीडिया पर उसका प्रभाव, उसके आर्थिक परिणाम और स्थायी विरासत आदि की खोज करता है, जो एक चेतावनी के रूप में हमें सावचेत करने का कार्य करता है।

आपातकाल (Emergency) के प्रभाव और परिणाम को समझने के लिए, हमें उस ऐतिहासिक संदर्भ में जाना होगा, जिसने इसे लागू करने के लिए मंच तैयार किया था। सन् 1970 के दशक की शुरुआत में, भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे आर्थिक संकट, असफल मानसून और बढ़ती कीमतें आदि। जनता के बीच व्यापक असंतोष को विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली, विशेष रूप से गुजरात और बिहार में, जहाँ छात्रों ने सत्तारूढ़ कांग्रेस शासन के खिलाफ देशव्यापी विपक्ष को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले, जिसमें इंदिरा गाँधी को चुनावी कदाचार का दोषी घोषित किया गया, इस नज़रिए से एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। हालाँकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की और एक सांसद के रूप में उनकी अयोग्यता पर आंशिक रोक लगा दी, लेकिन राजनीतिक माहौल अत्यधिक तनावपूर्ण बना रहा। इंदिरा गाँधी के बेटे संजय गांधी ने कथित तौर पर सरकार के फैसलों को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाई, जिसके कारण अंततः 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा दिया गया।

आपातकाल (Emergency) का मूल प्रभाव अधिकारों का निलंबन था, जिसे एक ऐसा कदम माना जा सकता है, जिसने देश के लोकतांत्रिक परिदृश्य को नया आकार दिया। केवल जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21) बरकरार रहने से, नागरिकों ने अपने मूल अधिकारों में व्यापक नाटकीय कटौती देखी। स्वतंत्र अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को गंभीर रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया था और सरकार द्वारा आंतरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम (एमआईएसए) के उपयोग से बिना परीक्षण के लोगों के व्यापक हिरासत की अनुमति दी गई थी। प्रमुख राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों सहित एक लाख से अधिक लोगों ने खुद को सलाखों के पीछे पाया।

आपातकाल के 21 महीनों में लोकतंत्र से आभासी निरंकुशता में परिवर्तन देखा गया। इंदिरा गाँधी एवं उनके नेतृत्ववाली सरकार ने पूरी तरह तानाशाही शक्तियाँ अपना लीं, असहमति को दबा दिया और राजनीतिक विरोध को पूरी तरह कुचल दिया। नेताओं की गिरफ़्तारियाँ, कहीं आवाजाही पर प्रतिबंध और खामोश न्यायपालिका ने एक ऐसा माहौल बनाया, जहाँ बुनियादी लोकतांत्रिक मानदंडों को व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे राजनीतिक परिदृश्य में एक शून्य पैदा हो गया।

लोकतंत्र के एक अनिवार्य स्तंभ, मीडिया ने आपातकाल का व्यापक दंश झेला। सरकार के खिलाफ किसी भी प्रतिकूल राय को दबाने के लिए प्रेस पर सख्त नियम लागू किए गए। सेंसरशिप अभूतपूर्व-अकल्पनीय स्तर पर पहुँच गई, जिससे पत्रकारिता की स्वतंत्रता का हनन हुआ। सरकार विरोधी लेख लिखने के कारण कई संपादकों और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया और यहाँ तक कि प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार को भी युवा कांग्रेस का समर्थन करने से इनकार करने के कारण कठोर प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। ऐसी परिस्थिति में मीडिया भी लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का मूक गवाह बन गया।

राजनीतिक प्रभावों से परे, आपातकाल का गहरा आर्थिक प्रभाव पड़ा। व्यापक हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों ने सरकार को पंगु बना दिया, जिससे उथल-पुथल भरा आर्थिक माहौल बन गया। आपातकाल के दौरान उठाए गए सत्तावादी उपायों ने मौजूदा आर्थिक चुनौतियों को बढ़ा दिया, जिससे देश की आर्थिक स्थिरता पर स्थायी प्रभाव पड़ा। भारत के आर्थिक मोर्चे पर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर का दूरगामी परिणाम हुआ।

यदि हम पीछे मुड़कर देखें, तो सन् 1975-1977 ई. का आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे काले दिनों में से एक है। इसकी विरासत लोकतंत्र की नाजुकता और मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए शाश्वत सतर्कता एवं अनिवार्य आवश्यकता की याद दिलाती है। इस अवधि के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण, मीडिया सेंसरशिप और आर्थिक चुनौतियाँ निरंकुश सरकारों के अतिक्रमण के खिलाफ, लोकतांत्रिक ताने-बाने की रक्षा करने के महत्व को रेखांकित करती हैं।

सन् 1975-1977 ई. का आपातकाल राजनीतिक उथल-पुथल के समय लोकतंत्र के सामने आनेवाली चुनौतियों की मार्मिक याद दिलाता है। राजनीतिक दमन, मीडिया सेंसरशिप और आर्थिक चुनौतियों की विशेषतावाले अंधकार काल ने भारत के राजनीतिक विकास को महत्वपूर्ण रूप से आकार दिया। इतिहास के इस अध्याय से सीखना यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र का ऐसा क्षरण कभी दोबारा न हो। राष्ट्र का आधार बननेवाले सिद्धांतों को बनाए रखने का स्थायी महत्व भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य पर आपातकाल के स्थायी प्रभाव से उजागर होता है।

इस क्रम में आगे बढ़ते हुए, यह सर्वोपरि है कि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमारा देश भारत, दोबारा ऐसी स्थिति न देखने की अपनी प्रतिबद्धता पर दृढ़ रहे। सत्तावादी प्रवृत्तियों का सामना करने पर आपातकाल लोकतांत्रिक संस्थानों की नाजुकता की याद दिलाता है। राष्ट्र की रीढ़ बननेवाले लोकतांत्रिक मूल्यों का पोषण और सुरक्षा करने की सामूहिक जिम्मेदारी नागरिकों, राजनीतिक नेताओं और संस्थानों की है। मौलिक अधिकारों पर किसी भी अतिक्रमण, असहमति के दमन और लोकतांत्रिक मानदंडों के क्षरण के खिलाफ सतर्कता सामूहिक चेतना में शामिल की जानी चाहिए।

इतिहास को, आपातकाल से मिले सबक के साथ, देश को ऐसे भविष्य की ओर ले जाना चाहिए, जहाँ लोकतंत्र के सिद्धांतों को न केवल बरकरार रखा जाए, बल्कि किसी भी संभावित खतरे के खिलाफ मजबूत भी किया जाए। अतीत की गूँज भारत को उस रास्ते पर ले जानी चाहिए, जहाँ लोकतांत्रिक आदर्श पनपें, और संवैधानिक ताना-बाना अटल बना रहे, यह सुनिश्चित करते हुए कि अधिनायकवाद की काली छाया कभी भी उस जीवंत लोकतंत्र पर न पड़े, जिसकी भारत जैसा देश कभी अपेक्षा नहीं करता है।

आपातकाल (Emergency) की विरासत सत्ता के अनियंत्रित एकीकरण और लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण के खिलाफ एक कड़ी चेतावनी के रूप में खड़ी है। किसी लोकतंत्र में वहाँ के नागरिक ऐसे माहौल से कहीं अधिक लायक हैं, जहाँ असहमति को खारिज कर दिया जाता है, मौलिक अधिकारों को कुचल दिया जाता है और लोगों की आवाज पर निरंकुश शासन हावी हो जाता है। जैसा कि हम इस ऐतिहासिक प्रकरण पर विचार करते हुए, यह सुनिश्चित करने के लिए शाश्वत सतर्कता की अनिवार्यता को मजबूत करता है कि आपातकाल (Emergency) की छाया फिर से भारत के जीवंत लोकतांत्रिक परिदृश्य पर न पड़े।

समकालीन परिदृश्य में, भारत एक सुविकसित राष्ट्र के रूप में खड़ा है, जो सन् 1975-1977 ई. के कालखंड में आपातकाल के दौरान सामना की गई चुनौतियों से बहुत दूर है। देश ने पूरे दिल से लोकतंत्र को अपनाया है और समय-समय पर होनेवाले चुनावों से नागरिकों को स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिनिधियों को चुनने की अनुमति मिलती है। एक मजबूत न्यायपालिका द्वारा संरक्षित न्याय के सिद्धांत, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। आर्थिक सुधारों और उदारीकरण ने भारतको निरंतर विकास, तकनीकी प्रगति और वैश्विक प्रमुखता के युग में पहुँचा दिया है।

यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारा राष्ट्र एक ऐसे स्थान के रूप में विकसित हुआ है, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का सामना करनेवाला मीडिया अब सत्य के सतर्क संरक्षक के रूप में कार्य करता है। पत्रकार स्वतंत्र रूप से विविध दृष्टिकोणों को व्यक्त करते हैं, एक सूचित और सशक्त नागरिक वर्ग में योगदान करते हैं। इस संपन्न लोकतंत्र में, प्रत्येक नागरिक की राय का सम्मान किया जाता है, जिससे एक ऐसे वातावरण को बढ़ावा मिलता है, जहाँ विचारों की विविधता का स्वागत किया जाता है। अधिनायकवाद की छाया से एक सुविकसित लोकतंत्र तक भारत की यात्रा इसके लोगों के लचीलेपन और लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों – स्वतंत्रता, न्याय और समानता को बनाए रखने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है। एक बहुलतावादी लोकतांत्रिक देश में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में फिर कभी आपातकाल (Emergency) जैसी निरंकुश परिस्थितियाँ पैदा न हों।