ईश्वर के प्रति परम प्रेम है ही कहलाती है भक्ति

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क्या भक्ति एक क्रिया है अथवा भक्ति क्या कोरी भावुकता है या फिर भक्ति के लक्षण क्या हैं। ‘नारद भक्ति-सूत्र’ में कहा गया है कि ‘परमात्मा’ के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं। भक्ति नि:संदेह प्रेमरूपा है। किंतु हर प्रकार का और हर किसी से किया गया प्रेम भक्ति नहीं है। हमारे घर में बहुत-सी वस्तुएं और प्राणी हैं। पर हम यह तो नहीं कहते कि मेरे कुत्ते के ऊपर अथवा मेरे घर के प्रति मेरी बड़ी भक्ति है। चीजें मुझे अच्छी लगती हैं, चेतन प्राणियों के लिए हम कहेंगे-यह मुझे प्रिय है।

दो स्तम्भ हैं भक्ति के

इनके अभाव में भक्ति संभव नहीं है और भक्ति का विकास हो नहीं सकता। श्रद्धा अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण निष्ठï। और विश्वास माने-किसी को मन से, ढंग से, लगन से चाहना, उसे मानना और उसके प्रति अपना संपूर्ण समर्पण। जब किसी को अपना मान लिया जाता है तो फिर उसके प्रति निष्ठï का भाव आ जाता है। उसे कुछ देने की इच्छा होती है यह भाव दोनों तरफ से होता है यदि एक तरफ से है तो स्वार्थ है। जहां पर विश्वास नहीं होता है वहां भी परिवारों में कलह, क्लेश, अशांति, अविश्वास होता है वहां का जीवन नरक के समान होता है।

भगवान श्री राम ने शबरी को दिया था नवधा भक्ति का उपदेश

प्रभु राम और लक्ष्मण जी जब शबरी के आश्रम में पधारे तो शबरी कहने लगी कि प्रभु मैं अधम जाति की हूँ। मैं आप की स्तुति किस प्रकार करूं ? प्रभु श्री राम ने कहा मैं तो केवल भक्ति का ही संबंध मानता हूं। मैं तुमसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूं।

  • पहली भक्ति है संतों की संगत
  • दूसरी भक्ति है मेरी कथा प्रसंग
  • तीसरी है गुरु के चरण कमलों की सेवा
  • चौथी कपट छोड़कर मेरे गुणों का गान
  • पांचवी भक्ति मंत्र का जाप और मुझ पर दृढ़ विश्वास
  • छठी भक्ति है अच्छा स्वभाव या चरित्र
  • सातवीं भक्ति है जगत को समभाव से ही राममय देखना
  • आठवीं भक्ति है जो मिल जाए उसमें संतोष करना और पराए के दोषों को ना देखना
  • नवीं भक्ति है सरलता और किसी से छल ना करना और हृदय में मेरा भरोसा रखना

इन नवों में से जिनके पास एक भी होती है। वह मुझे अत्यंत प्रिय हैं। फिर तुम में तो हर प्रकार की भक्ति है।