“डालू पर्व” (Dalu festival) आदिवासी समाज की एक पुरानी परंपरा है, जो आज तक मनाई जा रही है। इस परंपरा में एक मन्नत ली जाती है, जिसे पूरी होने पर उसे उतारा जाता है। हमने बुजुर्गों से बात करके पूछा कि यह कैसे की जाती है तो उन्होंने बताया कि यह एक बहुत पुरानी परम्परा है। जो वर्षों से परंपरागत चली आ रही है।
क्या होता है डालू मन्नत में?
जो कोई व्यक्ति यह मन्नत लेता है, उसके मन में एक सात्विक भक्ति होती है। जिसे हम आदिवासी भाषा में भगत कह सकते हैं। यह मन्नत कलम के वृक्ष पर ली जाती है तत्पश्चात जो मन्नत धारी व्यक्ति है वह 7 से 15 दिन के बीच बिना घर, बिना परिवार के रहता है। उसके खाने पीने की व्यवस्था वह स्वयं करता है। उसे अपना भोजन स्वयं अपने हाथों से बनाना होता है। वह व्यक्ति ना घर जाता है, ना किसी परिवार के व्यक्ति से मिलता है। यह एक शुद्ध मन्नत होती है। जो व्यक्ति इसे रखता है, उसकी मन्नत बाबा डालु पूरी करते हैं। यह मन्नत एक साध्वीक मन्नत है।

कैसे उतारे जाती है मन्नत
हमने बुजुर्गों से बात करके इस मन्नत के बारे में जानकारी ली तो हमें बताया गया कि कलम की डाल को लेकर मन्नत धारी अपने निज निवास या खेत की ओर निकलते हैं। डाल लेने से पहले सर्वप्रथम उस कलम के वृक्ष की पूजा की जाती है। इस पूजा में गांव के तड़वी, पुजारी, गांव के आसपास के लोग आदि कई व्यक्ति उपस्थित होते हैं।
डालू मन्नत की यात्रा
यह मन्नत एक मन्नत धारी के जीवन में कई प्रकार के बदलाव लाती है, जैसे:- उसकी मन्नत पूरी होने पर वह मन्नत धारी इसे उतारता है। इस मन्नत को उतारने के लिए कई गांव वासी और मन्नत धारी ढोल धमाकों के साथ डालू लेकर अपने निज निवास या खेत पर जाकर उस कलम की डाल को रखकर एक त्यौहार की तरह मनाते हैं। उस दिन मन्नत धारी के साथ उसके परिवार के लोग तथा गांव के लोग इस यात्रा में शामिल होकर रात्रिकालीन जागरण का पाठ करते हैं। रात भर ढोल और मांदल पर नाचते गाते हैं। यह मन्नत आदिवासी परंपरा गत मनाई जाती है। जिसे हमें आज देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
यह मन्नत हर कोई व्यक्ति भी ले सकता है पर इसके नियम बहुत कठोर होते हैं। इसे पूरी करने के लिए मन्नत धारी हर प्रकार का प्रयास करता है। यह मन्नत होली से प्रारंभ होकर 1 महीने के अंदर ली जाती है। आदिवासी समाज की सबसे बड़ी मन्नत मानी जाती है, जिसे हमारे आदिवासी भाई बहुत हर्ष और उल्लास से मनाते हैं। ऐसी परंपरा हमारे जीवन में एक खास ऊर्जा भरती है। हमारी आने वाली पीढ़ी को अपनी संस्कृति और सभ्यता दिखाने का एक जरिया है कि हम किस प्रकार से इस पृथ्वी पर आए और हमारी परंपराओं को हमने जीवित रखा। वाकई में यह देखकर मन प्रफुल्लित होता है कि आज भी हमारे आदिवासी भाई इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।