दीपावली (Diwali) को लेकर कुम्हारों के चाक की रफ्तार तेज हो गई है। ग्रामीण अंचल में मिट्टी का बर्तन बनाने वाले कुम्हार दिन-रात काम कर रहे हैं। कुम्हारों को उम्मीद है कि अब उनका पुश्तैनी कारोबार फिर से लौट आएगा। दीपावली (Diwali) पर इस बार लोगों के घर आंगन मिट्टी के दीये से रोशन होंगे। बाजार में भी मिट्टी के दीये बिकने के लिए पहुंच गए हैं। लोगों ने दीयों की खरीदारी भी शुरू कर दी है। गांव में सदियों से पारंपरिक कला उद्योग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में जहां पूरा सहयोग मिलता रहा, वहीं गांव में रोजगार के अवसर भी खूब रहे। इनमें से ग्रामीण कुम्हारी कला भी एक रही है, जो समाज के एक बड़े वर्ग कुम्हार जाति के लिए रोजी-रोटी का बड़ा सहारा रहा।
पिछले कुछ वर्षों में आधुनिकता भरी जीवनशैली के दौर में चाइनीज सामानों ने इस कला को बहुत पीछे धकेल दिया था। पिछले दो वर्षों से लोगों की सोच में खासा बदलाव आया और एक बार फिर गांव की लुप्त होती इस कुम्हारी कला के पटरी पर लौटने के संकेत मिलने लगे हैं। कुम्हारी कला से निर्मित खिलौने, दिया, सुराही व अन्य मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ी तो कुम्हारों के चेहरे खिल गए।
डुमरियागंज (Dumariyaganj) तहसील क्षेत्र के दर्जनों गांवों में आज भी कुम्हार मिट्टी के दीये के साथ ही बच्चों के खिलौने (जतोले, घंटी, भालू, हाथी, घोड़े) आदि बनाते हैं। चाइनीज झालरों व मोमबत्तियों की चकाचौंध ने दीयों के प्रकाश को गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया है। डुमरियागंज तहसील क्षेत्र के भानपुर गांव निवासी बड़काई 62 साल के हैं। वो हर दिन सुबह उठकर मिट्टी के चाक पर माटी के दीये व बर्तन बनाने में जुट जाते हैं। चार से छह घंटे कड़ी मेहनत से वह सैकड़ों दीये बनाकर ही उठते हैं। उन्होंने ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि जबसे मार्किट में चाइनीज़ झालर मोमबत्ती आई है, हम लोगों का रोजगार खत्म हो गया है। सरकार भी हम लोगों कि कोई मदद नहीं कर रही है। पहले हम लोग लाखो दिया बेंच लेते थे। अब हम लोगों को देश प्रदेश जाना पड़ेगा। सरकार स्वदेशी लाओ देश बचाओ का नारा देती है लेकिन हम लोगों का कुछ नहीं हो रहा।