ये पौराणिक व् आध्यात्मिक तथ्य जुड़े है, सावन के पवित्र माह से

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    हिन्दू पंचांग में काल गणना एवं बारह मासों की पृष्ठभूमि वैज्ञानिकता पर आधारित है। जिसमें श्रावण या सावन मास पांचवे स्थान पर है। यह मास जल के लिए जाना जाता है. साथ ही यह सृष्टि का सृजन काल भी होता है। शिवपुराण के अनुसार शिव स्वयं ही जल हैं। अतः जल से अभिषेक कर आराधना करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है। इस मास में भगवान विष्णु जल का आश्रय लेकर क्षीरसागर में शयन करने चले जाते हैं।

    क्यों कहा जाता है शिवजी को नीलकंठ

    पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन में सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला जिसकी ज्वाला से देवता,असुर जलने लगे। उनकी कांति फीकी पड़ने लगी। सभी ने भगवान शिव से प्रार्थना की तब उस विष को हथेली पर रखकर पी गए किंतु उसे कंठ से नीचे नही उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कंठ नीला हो गया इसलिए शिव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। विष के ताप से व्याकुल होकर शिव जी ने तीनो लोको में भ्रमण किया किंतु उन्हें शान्ति नही मिली। वे अंत में पृथ्वी पर आए और पीपल के वृक्ष के पत्तो को हिलता देख उसके नीचे बैठ गये जहां उन्हें शांति मिली।

    सावन माह का महत्त्व

    शिव जी के साथ सभी देवी-देवताओ ने अपनी शक्ति पीपल वृक्ष में समाहित कर दी, जिससे पीपल भोलेनाथ को शीतल छाया और जीवनदायिनी वायु प्रदान करने लगा। चन्द्र देव ने पूर्ण शक्ति से शीतलता दी, शेषनाग शिव के कंठ में लिपटकर उस कालकूट विष के दाह को कम करने लगे, इंद्र देव और गंगाजी निरंतर उनके शीश पर जलवर्षा करने लगी। विष ही विष के प्रभाव को कम कर सकता है अतः सभी देवता भांग, धतूरा, बेलपत्र शिव जी को खिलाकर कर उनके विष के ताप को कम करने का प्रयास करने लगे। जिससे शिव जी को शांति मिली और शिव जी श्रावण मास भर पृथ्वी पर ही रहे।