आज खाने के लिए घर में कुछ नही था और मालती को समझ में नही आ रहा था कि क्या बनाया जाये कि बच्चे की भूख भी मिट जाए और किसी के आगे हाथ भी न पसारना पड़े। मन ही मन बहुत ही हिसाब किताब लगाये जा रही थी, ऐसा भी नही था कि फसल के बाद सबका कर्जा वापिस कर देगी, लेकिन सपने कितने सजो के रखे थे। महेश बेचारा कितना रोया था जब उसकी गेंहूं की फसल बिना मौसम के ओले ने आकर खराब कर दी थी और उसके सारे सपनो को तोड़ के रख दिया था।
महेश ( मालती का पति ) जमींदार के खेत में अधिया पर काम करता था, यानी कि खेत उसका, मेहनत उसकी और सारा खर्चा भी महेश का और आमदनी में आधा हिस्सा जमींदार का। वैसे तो सबकुछ आधा होता है। यानी खेत में जितना खर्चा लगता है सब आधा होता है लेकिन ये जमींदार बहुत ही दुष्ट प्रविर्ती का था। महेश का कुछ वश तो चलने से रहा, सो मन को मसोश के रह जाता था बेचारा। गेंहूं के फसल में पानी की कितनी जरुरत होती है।
तीन चार बार पानी दमकल से पटवाया बहुत खर्चा बैठ गया था। अब तो गाँव में भी कोई हल बैल रखता नही था, सो सारा गाँव ट्रेक्टर से ही खेत की जुताई करवाता था। उसका मुंह माँगा दाम अलग। बस खर्चा ही खर्चा। इतना सब करने के बाद फसल पे ओले गिर जाए तो कोई क्या कर सकता है? आंसू बहाने के सिवाय कोई चारा ही नही रह जाता। तभी छोटू मालती का बेटा उसका आँचल खीचते हुए उसका ध्यान भंग कर देता है। माई भूख लगी है, कुछ भी खाने को नहीं है क्या? अब मैं पानी पीकर सो नही सकता क्यूंकि तूने कहा था कि शाम को पक्का रोटी बनेगी और अब कुछ बना ले। मालती ने सोचना बंद किया कि सोच-सोच कर दिमाग ख़राब करने से तो कुछ होने से रहा। राशन कार्ड पर मालती की नज़र पड़ गई कि इससे कुछ अनाज मिल जाता था, तो जाने क्या सरकार को सूझी कि अब उसको आधार से जोड़ने की बात कर रहे हैं और जोड़ने वाले को भी खर्चा पानी चाहिए। सरकार जाने गरीबों के लिए कौन कौन सी चींजे (स्कीम) निकालती रहती हैं पर नेता और अमीर लोग जरुरतमंदों के पास उसको पहुँचने दे तब न।
अचानक मालती को याद आया कि जब पिछली बार माँ से मिलने गयी थी तो माँ ने दो किलो चावल बांध दिए थे कि लो खीर बनाना। बहुत मीठे है। अपने खेत के हैं। मालती जल्दी जल्दी से चावल की पोटली खोजने लगी और साथ में ये भी सोचती रही कि चवाल सूखे तो गले में अटकेंगे, दाल बंनानी पड़ेंगी। फिर उसने जल्दी से चावल को पानी में भिगोया। बेटे को आश्वासन दिया कि थोड़ी देर और रुक जा। बेटे ने माँ को चूल्हा जलाता देख थोडा मन को शांत किया, फिर खेलने चला गया। मालती ने जल्दी से सिलबट्टे पर भीगे चावल को पिसा और जल्दी से आटा मढ़ कर चार बड़ी बड़ी रोटियां बना दी। महेश खेत से आ गया था। सो उसे रोटी की सुगंध बाहर तक आ रही थी। वो सीधे चूल्हे के पास आ गया और हाथ पैर धो के बैठ गया। फिर सबने रोटी और नमक के साथ, जिसमे मालती ने थोड़ी लाल सुखी मिर्च और हल्का सा तेल डाल दिया था। सबने एक एक रोटी खाई लेकिन चोथी रोटी अम्मा की थी वो नहीं खाने आई। वो चलने में भी असमर्थ थी और खाने का भी दिल नही कर रहा था। पिछले कई महीने से बिस्तर पकड़ रखा था। थोडा बहुत इधर उधर कर लेती थी। कोई और होता तो कब का जा चुका होता। ये उनके अन्दर से कोई शक्ति थी कि उन्हें मरने नहीं दे रही थी। जाने क्या था उनके दिमाग में? वरना दूसरा तो इतने दिनों से बिना खाए पिए कब का दुनिया को अलविदा कह चुका होता।
लेकिन ध्यान सब चीजों पर रहता था। घर का कोना कोना उन्होंने ही तो बनाया था। इस मिटटी के घर के हर कोंने में उनकी खुसबू सी बसी थी। जब भी बाथरूम की तरफ जाती, लकड़ी को इधर उधर करते रहती। भले चला जाये या न ..सब लोग बिस्तर पर चले गये। महेश हमेशा की तरह अपनी अम्मा के पैर दबाने के लिए आया। उसने देखा कि दो बूंद आंसू उनके आँखों के किनारे गिर कर सूख रहे थे। महेश का कलेजा फटने को आया। हाय अम्मा का ईलाज सही से नहीं करवाया इसलिए अम्मा रो रही है न? मैं तुम्हारा अच्छा बेटा नहीं बन पाया। मुझे माफ़ कर देना अम्मा। अम्मा धीरे धीरे बोलने लगी- न लल्ला तू तो मेरा राजा बेटा है। मेरी सेवा की खातिर तूने कभी शहर का रुख नही किया। तेरे बापू के जाने के बाद मेरी देखभाल और अपनी बहन की शादी। सब तुमने किया। तू तो बहुत नेक बच्चा है मेरा। फिर अम्मा खाना क्यों नही खा रही है, मुझे बता ? अम्मा बोली उस दिन बैद्य जी ने बोल दिया था न कि इनके पास वक्त कम है। कहा था न “हाँ अम्मा कहा तो था .”” फिर मुझे भी पता है कि मैं अब ज्यादा दिन जीने नहीं वाली। अभी हूँ कल नहीं।
“अम्मा इस तरह मत बोल, हम कैसे रहेंगे तेरे बिना।” महेश ने कहा।
“लेकिन मैं मर नहीं रही मेरी इच्छा शक्ति के कारण ” अम्मा ने कहा।
महेश माँ को प्रश्नवाचक नज़र से देखने लगा। फिर अम्मा कहने लगी, ” बेटा ये ब्राहम्णों का गाँव है। मैं आज मर गयी तो कल से तेरहवी आने तक श्राध और कर्म के नाम पे जो जमीन तूने बहन की शादी में गिरवी रखी थी वो भी बेचने पर मजबूर कर देंगे। मेरी सांस की डोर न जाने कब की टूट गयी होती। इस चिंता से मैं मौत से लड़ रही हूँ, लेकिन पहर दो पहर उससे ज्यादा देर की मेहमान नही हूँ मैं। मर भी गयी तो मेरी आत्मा तेरे ही आसपास रहेगी।” अब तो महेश के पैरों तले जमीन खिसक गयी। अम्मा ये सब सोच रही थी कि मेरी चिंता से चैन से मौत को भी गले नही लगा रही और इतनी तकलीफ सह रही हैं। जबकि बैद्य जी ने कई दिन पहले ही जवाब दे दिया था। महेश अपनी माँ के पास ही लेट गया। मालती वही खड़े खड़े सब सुन रही थी और आंसू को पोछ कर बेटे को लेकर निचे ही चटाई डालकर सब लोग सो गये।
पर महेश की आँखों से नींद गायब थी। वो बस करवट बदल रहा था कि माँ ने आवाज़ दी महेश। वो बोला हाँ माँ, मैं इधर ही हूँ। क्या हुआ बोलो? बेटा जरा पानी पिला देना ! मालती, मालती जरा उठकर पानी लाना अम्मा मांग रही है।
मालती ने नींद में कहा पानी तो कमरे में रखना भूल गयी थी।”
अम्मा ने कहा महेश कोने में गंगाजल है, वही दे दो। अब तू कहाँ पानी लेने जाएगा।”
महेश ने तड़प कर कहा, “अरे नहीं अम्मा” और जैसे ही वो उठा, अम्मा ने उसके हाथ पर अपने हाथ धर दिए। हाथ पूरा सर्द पड़ चुका था। सो महेश ने जल्दी से गंगाजल ही दे दिया पीने के लिए। अम्मा ने सदा के लिए आँखे बंद कर लीऔर दुनिया को अलविदा कह दिया। तब तक मालती भी उठ गयी थी। अम्मा का शरीर ढीला पड़ चुका था और बस शरीर ही बचा था। आत्मा जा चुकी थी। महेश फूट फूट कर रो रहा था। मालती भी सिसक रही थी।
पूरे गाँव में बात आग की तरह फ़ैल गयी और धीरे धीरे पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया ! अब अचानक से अंतिम संस्कार के लिए लकडिया कहाँ से आएँगी? सब एक दुसरे का मुंह देख रहे थे। सबकी हालत एक जैसी ही थी। तभी मालती को याद आया कि अम्मा हमेशा घर के पिछवाड़े वाले झोपडी में लकड़ियाँ रखती और कहती मुसीबत में काम आयेंगे। मालती को उधर जाने भी नही देती कि तू ज्यादा सूखी लकड़ी इस्तमाल कर लेगी और खुद मालती को कच्ची पक्की लकडिया देती। कभी कभी पत्ते दे देती थी। मालती को तो बहुत गुस्सा आता था कि इससे बड़ी मुसीबत क्या होगी? जब मालती ये सब सोचते सोचते उस झोपडी में गयी तो पैर के निचे से जमीन ही निकल गयी। पूरा का पूरा लकड़ी से भरा हुआ था। सबको बहुत आश्चर्य हुआ क्यूंकि अम्मा के संस्कार के बाद भी इतनी लकड़ी बच जाती कि भोज भात आराम से हो!
मालती को याद आया कि मरने से दो दिन पहले तक अम्मा ने खाना नहीं खाया था लेकिन लकड़ी निकाल कर दी थी। मालती को अम्मा की इस दूरंदेशे सोच पर बहुत आश्चर्य हो रहा था। तब तक मालती की ननद मानसी भी आ गयी थी। अम्मा को इस तरह देख कर बस रोये जा रही थी। फिर अम्मा को आखिरी सफ़र पे ले जाया गया। जिस जगह पर उन्हें उन्ही के जमा किए गये लकड़ी से अग्नि स्नान कराया गया। जिसने भी देखा और सुना वो रोता रहा।
उस दिन तो चूल्हा जलता नही तो पड़ोसी खाना दे गये। छोटू के अलावा किसी ने खाना खाया नही। तीसरे दिन से गरुड़ पुराण शुरू। ब्राह्मण देवता का आना शुरू। अब आज से दस दिन तक का खर्चा कैसे चलेगा और ब्राहमण देवता नाराज भी न हो। अम्मा का कर्म सब बढ़िया से हो जाए। गरुड़ पुराण सुनते सुनते महेश हाथ जोड़ कर सब देवता से यही विनती कर रहा था।
पण्डित जी ने कहा, “जजमान आज से गरूड़ पुराण रोज होगा। आपको प्रसाद में दो तीन तरह के फल और कम से कम ५१ रुपया तो रखना ही पड़ेगा।” ये कान में शब्द बम की तरह फूट रहे थे। कहाँ से आयेंगे इतने पैसे रोज? क्या करूंगा मैं? शायद इसी वजह से मेरी अम्मा यमराज को इंतज़ार करवा रही थी लेकिन कितने दिन। एक न एक दिन अम्मा को तो जाना ही था, लेकिन हमारा समाज क्यूँ नही समझता इस बात को। शादी और श्राद्ध के नाम पर गरीबों की कमर किस कदर टूट जाती है। लोगों को एक टाइम का खाना खिलाने के चक्कर में न जाने कितने सालों तक कर्जे में डूबा रहना पड़ता है। कितने साल निकल जाते हैं, उस कर्जे को सधाने में, जो उस एक वक़्त के दावत के लिए किया जाता है। यही सब सोचते सोचते गरुड़ पुराण ख़त्म हो गया और सब लोगों को प्रसाद बाटा गया। बाकी सब का तो पता नही पर बेचारा छोटू इन सब में बड़ा खुश था कि चलो इस बहाने दोनों वक़्त कुछ न कुछ बढ़िया खाने को तो मिल ही जाता है।
आज अम्मा को गये हुए चार दिन हो गये थे। महेश और मालती दोनों तो व्रत में थे। एक वक़्त बिना नमक का खाना खाते थे, लेकिन महेश को ये बात समझ मे नहीं आ रही थी कि तेरहवी को जो ब्राहमण भोजन होगा उसका क्या इंतजाम कैसे करे? खेत में फसल होती तो कोई इस लालच में कर्जा दे देता कि चलो फसल कटाई पर दे देंगे, लेकिन कोई ऐसा नही था कि कर्जा भी दे दे और थोडा वक़्त भी पैसे वापिस करने के लिए। जमीन भी गिरवी धरी थी। मालती का कोई गहना नही बचा था। बेचारी कभी मुंह न खोलती थी कि तुम मुझे कुछ दिलवाते नही। जो दिया उसी में रुखी सुखी खा कर खुश रहती थी।
महेश चुपचाप चारपाई पर बैठा था कि तभी मानसी आई और बगल में बैठ गयी। कहने लगी भाई तुम इतना परेशांन मत रहो, देखो मैं हूँ न। महेश बहन को देखने लगा! उसने साडी के पल्लू से नोटों का बण्डल निकाला और भाई के हाथ में रख दिए। महेश ले भी नहीं सकता था और दूसरा कोई चारा भी नही था। वो बहन को निहारने लगा। फिर मानसी कहने लगी, पिछले साल आम की फसल बहुत बढ़िया हुई थी। वो पैसे मेरे अब आये हैं और कुछ जमा करके रखे थे और …
महेश ने पूछा और क्या बोलो ?
भाई मैंने अपने कानो की बाली बेच दी …!
महेश निशब्द सा अपनी बहन को देखता रहा। कितने प्यार से उसके लिए लिया था राखी पर। फसल अच्छी होने पर बनवाया था। वक़्त जाने और क्या सब दिखलाने को तैयार था।
अब बस ब्राहमण भोज के दिन की तैयारी हो रही थी कि ब्राह्मण देवता नाराज न हो जाएँ। दान में देने के लिए एक बछिया आई। छोटू खुश कि अब वो ताज़ा दूध पिएगा। एक चारपाई पर वो जाकर कूदने लगा तो सबने उसे डाट के भगा दिया। बेचारा हमेशा नीचें ही सोता था। एक चारपाई थी। उसपर दादी सोती थी। पापा कहीं भी सो जाते थे। बेचारा समझ ही नही पा रहा था कि उसके घर में इस सारे सामन की जरुरत तो है लेकिन ये छोटू के लिए नही तो किसके लिए। मोटे गद्दे भी आये दान करने के लिए। बेचारा छोटू हमेशा चटाई पर गर्मी में और सर्दी में एक पतली चादर के सहारे ही सोया था। जाने ये दान कौन है? जिसको सब दिए जा रहे हैं। मेरे पास भी तो नही है। वो किसी को क्यूँ नहीं दिख रहा? छोटू खुद से बातें करता। सब जो कहते, ये दान के लिए है, वो दान के लिए है, तो छोटू समझता ये दान कोई व्यक्ति है।
आज आखिर ब्राहमण भोज का समय आ ही गया। कर्म होने के बाद पंडित जी का सारा दान वाला सामान जा रहा था। छोटू को बहुत ख़राब लग रहा था। उसका वश नही चल रहा था कि सारा सामान कही छुपा के रख दे। आखिर उसने बाल्टी पकड ली कि ये तो मैं नहीं दे रहा। मालती, महेश और मानसी सब भाग के आये। छोटू छोड़ दो पाप लगेगा। दान का है, दे दो। छोटू बोला सब तो दे दिया इस बाल्टी से मेरी अम्मा पानी भरेगी। हमेशा मिटटी का मटका टूट जाता है। बाल्टी नहीं टूटेगी। अम्मा कितनी बार गीली भी हो जाती है, सर पर मटका रखने की वजह से। अब तो सब लोग एक दुसरे को देखने लगे कि क्या परम्परा है? खुद के लिए हो न हो पर धर्म के नाम पर, संस्कार के नाम पर ,भगवन के नाम पर करना ही पड़ता है।
मालती उसको समझाने लगी कि बेटा दे दो। हम यहाँ देंगे तो इश्वर दादी को स्वर्ग में देंगे। छोटू ने तुरंत कहा, “अच्छा अम्मा, जब दादी जिन्दा थी। तब आपने क्यूँ नहीं दिया। इ ब्राहमण कैसे देंगे, मर कर देंगे दादी को ये बर्तन, ये गद्दे, ये सब कुछ बोलिए पंडित जी? पंडित जी उस जगह से चुपचाप निकल गये। मालती और महेश कुछ न कह सके। उस बच्चे के सवाल ने सबको झकझोर के रख दिया था।
अब ब्राहमण भोज शुरू हुआ। सब ब्राहमण को पंक्ति लगाकर बिठा दिया गया। अब भोजन लगने लगा। कचोडी, सब्जी और जलेबी और जाने क्या-क्या पकवान बने थे। पूरा पत्तल भर गया। महेश और मालती ने तेरह दिन तक भोजन बस एक समय तक किया था और वो भी बिना नमक के। उनकी हालत तो ठीक नही थी फिर भी हाथ जोड़ के खड़े थे कि कोई त्रुटी न रह जाए।
न परोशने वाले को गम था कि इस भोजन का इंतजाम कैसे हुआ? न खाने वालों को गम था। खाना पत्तल पर इतना सब डलवा रहे थे। बिना इसकी फ़िक्र किये कि बर्बाद हो जायेगा। झूठा कौन खायेगा? कोई मतलब नही, बर्बाद हो रहा है तो हो। दो घंटे के भोजन और दक्षिणा देने के बाद सब ब्राह्मण अपने घर को गये तो बेचारा छोटू जबसे जलेबी मांग रहा था तो कोई उसको दे नहीं रहा था कि ब्राह्मण नाराज न हो जाए। एकबार उनको खा लेने दो तो ले लेना। वो जल्दी से एक पत्ते पर जूठी पड़ी हुई जलेबी उठा के खाने लगा। बेचारे ने तो भूख़ का दर्द बहुत बढ़िया से महसूस किया था। उसके लिए क्या झूठा क्या साफ़।
छोटू जलेबी खाते हुए आराम से मालती के पास आया और बोला अम्मा अब ब्राहमण भोज तो हो गया, कल से कुछ नही होगा क्या? मालती ने कहा नही, क्यूँ ऐसा क्यूँ बोल रहे हो लल्ला? दादी प्यार तो बहुत करती थी। मरी तो रोना भी बहुत आया था लेकिन ये न पता था कि जो जब जिन्दा थी, तो एक शाम का खाना भी मुश्किल से मिलता था। उनके मरने के बाद बहुत अच्छा खाना मिला। उनको भी और हमें भी। जिन्दगी से तो बहतर मौत ही हुई न और जलेबी खाते हुए जा ही रहा था कि फिर रुका लेकिन अम्मा दादी को ये सारा सामान और जलेबी मिली कि नही। इस बात की गारण्टी कौन लेगा? वो तो गया लेकिन मालती और तब तक महेश और मानसी भी वहीँ आ गये और स्तब्ध हो गये।
लेकिन छोटू जाते जाते एक बात और बोल गया अम्मा मुझे ये सब चीजें मरने के बाद न चाहिए, जिन्दा में ही मिल जाता तो कितना अच्छा होता न? ये सवाल हर उस गरीब बच्चे का है, जो कभी स्कूल नही जा पाते। ढंग के कपडे नही पहन पाते लेकिन दान कर्म के नाम पे भले ही कितना कर्जा हो जाये पर हालत ये है कि गरीब आदमी मरने से पहले सोचे?