Surat: वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय, सूरत (Surat) के तुलनात्मक साहित्य विभाग द्वारा दिनांक 26/09/23 को प्रातः 11:00 बजे अनुवाद की अवधारणा पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया। जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में अनुवादक श्रीमती कश्यपी महा (कश्यपि परीक्षित जोशी) उपस्थित रहीं। सम्पूर्ण कार्यक्रम का आयोजन विश्वविद्यालय के माननीय कुलाधिपति श्री डाॅ. किशोर सिंह एन चावड़ा साहब एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग के अध्यक्ष श्री डाॅ. यह भरतभाई ठाकोर साहब के मार्गदर्शन में किया गया था।
कार्यक्रम का शुभारंभ भारतीय परंपरा के अनुसार मां सरस्वती की स्मृति में दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। दीप प्रगट्य रेवरेंड चांसलर श्री डाॅ. किशोर सिंह चावड़ा साहब, विभागाध्यक्ष श्री डाॅ. भरतभाई ठाकोर साहब, मुख्य अतिथि श्रीमति कश्यपी जोशी एवं अन्य स्टाफ सदस्यों द्वारा किया गया। कार्यक्रम के अगले शिविर में विभागाध्यक्ष श्री डाॅ. सेमिनार में विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति श्री डॉ. भरतभाई ठाकोर साहब शामिल हुए। किशोर सिंह चावड़ा साहब, कार्यक्रम की मुख्य अतिथि सुश्री कश्यपी जोशी, शैक्षणिक स्टाफ एवं विद्यार्थियों का हार्दिक स्वागत किया गया।
अपने स्वागत भाषण में डॉ. ठाकोर साहब ने सेमिनार के उद्देश्य के बारे में बताया और कहा कि इस सेमिनार का उद्देश्य छात्रों को इस बात से अवगत कराना है कि अनुवाद किस प्रकार उपयोगी है? इसके बाद उन्होंने कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती जोशी के बारे में संक्षिप्त परिचय दिया। जिसमें उन्होंने मुख्य वक्ता की शिक्षा, विभिन्न गुजराती दैनिक समाचार पत्रों में उनके द्वारा निभाए गए विभिन्न कर्तव्यों, पुस्तकों के संपादन और अनुवाद, शोध कार्य आदि के बारे में बात की। अपने व्याख्यान में उन्होंने बताया कि किस प्रकार छात्रों को अनुवाद कौशल विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने बताया कि अनुवाद से किस प्रकार आपसी सौहार्द स्थापित होता है। उन्होंने कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती जोशी द्वारा अनुवादित एवं श्री मृदुला सिन्हा द्वारा लिखित पुस्तक परितृप्त लंकाश्वरी पर अपने विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने साहित्य के उद्देश्यों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि साहित्य केवल आनंद के लिए नहीं बल्कि जीवन का प्रतिबिंब है। अंत में उन्होंने लेखिका मृदुला सिन्हा के साथ अपने संस्मरण प्रकाशित किये।
इसके बाद सेमिनार में आये अतिथियों का स्वागत किया गया। सर्वप्रथम विश्वविद्यालय के माननीय कुलाधिपति श्री डाॅ. किशोर सिंह चावड़ा साहब का स्वागत विश्वविद्यालय के खेस एवं पुष्पगुच्चा द्वारा विभागाध्यक्ष श्री डाॅ. भरतभाई ठाकोर साहब ने किया। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती जोशी का स्वागत वर्सिटी खेस एवं पुष्पगुच्चा द्वारा माननीय कुलाधिपति द्वारा किया गया। विभागाध्यक्ष श्री डाॅ. भरतभाई ठाकोर साहब का प्रोफेसर श्री एपी गमीत साहब ने फूलों से स्वागत किया।
स्वागत समारोह के पश्चात विश्वविद्यालय के माननीय कुलाधिपति श्री डाॅ. सेमिनार के विषय पर किशोर सिंह चावड़ा साहब ने भाषण दिया। उन्होंने सेमिनार में आये पत्रकारिता एवं तुलनात्मक साहित्य के विद्यार्थियों का स्वागत किया। उन्होंने कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती जोशी के बारे में बताया। अनूदित साहित्य में उनके द्वारा किये गये योगदान के बारे में बताया। उन्होंने विद्यार्थियों से कहा कि वे सुश्री जोशी जैसे लोगों को अपना आदर्श बनायें। उन्होंने वर्तमान समय में मातृभाषा में शिक्षा की उपलब्धता की बात कही। उन्होंने भारत और गुजरात में पर्यटन परियोजनाओं के बारे में बात की और अनुवाद के संदर्भ में गाइड की भूमिका पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने इस बात पर अपने विचार व्यक्त किये कि अनुवाद किस प्रकार स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देने में भूमिका निभा सकता है। उन्होंने स्थानीय आय बचाने के लिए पर्यटन का उपयोग किया।
तत्पश्चात् कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती कश्यपीबेन जोशी ने संगोष्ठी के विषय पर अपने विचार व्यक्त किये। अनुवाद कला की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आजकल अनुवाद का क्षेत्र विकसित हो रहा है। उन्होंने कहा कि कोरोना के कारण फॉर्म का काम घर पर ही करना पड़ता था, अब अनुवाद का काम घर पर ही किया जा सकता है। अनुवाद से जुड़ने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि वह इस काम से इसलिए जुड़े क्योंकि पत्रकारिता पाठ्यक्रम में संदर्भ पुस्तकें अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में उपलब्ध थीं।

अनुवाद विज्ञान की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अनुवाद स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा पर आधारित होता है। इन दोनों में महारत हासिल करने की जरूरत है। यह एक बुनियादी आवश्यकता है। इसे समझने के लिए व्यापक अध्ययन और शब्दावली की आवश्यकता होती है। उन्होंने अनुवाद के प्रकारों जैसे शाब्दिक अनुवाद, व्याख्या और सारांश अनुवाद के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि लोग अनुवाद को तकनीकी मानते हैं लेकिन मैं इसे कला मानता हूं। उन्होंने टैगोर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद के बारे में बताया। अनुवाद के कार्य के बारे में उन्होंने कहा कि अनुवाद करते समय कभी-कभी स्रोत भाषा से सीधा अनुवाद न होकर अप्रत्यक्ष रूप से अनुवाद आता है। ऐसे अनुवाद में या तो अनुवाद अच्छा होता है या ख़राब।
उन्होंने कहा कि इस कमी को दूर करने के लिए यह देखना चाहिए कि क्या मूल पुस्तक का अन्य परिचित भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनके अनुसार अनुवाद करते समय यदि आपको एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान हो तो अनुवाद बेहतर हो सकता है। ऐसे अनुवाद में या तो अनुवाद अच्छा होता है या ख़राब। उन्होंने कहा कि इस कमी को दूर करने के लिए यह देखना चाहिए कि क्या मूल पुस्तक का अन्य परिचित भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनके अनुसार अनुवाद करते समय यदि आपको एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान हो तो अनुवाद बेहतर हो सकता है। ऐसे अनुवाद में या तो अनुवाद अच्छा होता है या ख़राब। उन्होंने कहा कि इस कमी को दूर करने के लिए यह देखना चाहिए कि क्या मूल पुस्तक का अन्य परिचित भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनके अनुसार अनुवाद करते समय यदि आपको एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान हो तो अनुवाद बेहतर हो सकता है।
व्यापक स्तर पर उन्होंने साहित्यिक अनुवाद और गैर-साहित्यिक अनुवाद दो प्रकार की पहचान की। उनके अनुसार अनुवाद विषय के अनुसार बदलता रहता है। उन्होंने सबसे पहले साहित्येतर अनुवाद की चर्चा की और कहा कि इस प्रकार का अनुवाद पत्रकारिता एवं अन्य विषयों एवं क्षेत्रों में होता है। इसमें उन्होंने किसी विषय विशेष के समाचार का अनुवाद करते समय उस विषय की शब्दावली आदि के ज्ञान और प्रयोग पर जोर दिया। उन्होंने दैनिक समाचार पत्रों की पूरक रचनाओं के अनुवाद कार्य में रचनात्मकता पर बल दिया। उन्होंने विशेष विषयों के अनुवाद कार्य में उस विषय की विशेष भाषा पर ध्यान देने को कहा।
उन्होंने अनुवाद करते समय लक्षित दर्शकों की शिक्षा, उम्र, सामाजिक पृष्ठभूमि आदि पर ध्यान देने को कहा। उन्होंने अनुवाद के प्रकारों में शाब्दिक अनुवाद को सर्वोत्तम बताया।
अनुवाद दूसरे प्रकार के साहित्यिक अनुवाद के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें अलंकरण आदि पर विचार करना चाहिए। उन्होंने अलंकृत भाषा का अनुवाद करते समय लक्ष्य भाषा के अलंकारों पर विचार करने की बात कही। उन्होंने अनुवाद में स्रोत और लक्ष्य दोनों भाषाओं को समझने पर जोर दिया। अंत में उन्होंने मृदुला सिन्हा द्वारा लिखित और अनुवादित पुस्तक परितृप्त लंकाश्वरी के बारे में एक महत्वपूर्ण चर्चा के साथ अपना भाषण समाप्त किया।
कार्यक्रम के अंत में विभाग के प्रोफेसर श्री अनिल गमीत ने सेमिनार में आये सभी प्रतिभागियों को धन्यवाद दिया तथा कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की।