Kanjhawala Case: बेटी नहीं मेरे घर का मर्द थी वो, मां की आंखों में दर्द और बेबसी के आंसू

शाम घर से निकलते हुए पिंक जैकेट के साथ नई पैंट पहनी और पूछा- मम्मी, मैं कैसी लग रही हूं। वो प्यारी तो थी ही, थोड़ा सजती तो और अच्छी लगने लगती।

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ये है वो मां जिसकी बेटी पिछले तीन दिनों से सुर्खियों में है। कंझावला केस में हर कुछ घंटों में एक नया खुलासा सामने आता है। दरिंदगी, हैवानियत से लेकर इंसाफ जैसे शब्द हवा में हैप्पी न्यू ईयर की तरह तैर रहे हैं। इन सबके बीच अपनी 20 साल की बेटी को खो चुकी 38 साल की मां गुम हो चुकी। वर्तमान में, कंबल और रजाई में ढकी हुई यह महिला केवल एक टेप रिकॉर्डर है, जिससे घिसेपिटे सवालों के सनसनीखेज जवाब मांगे जा रहे है।

लगभग 70 घंटों की थकान उनकी आंखों से ज्यादा आवाज में सुनाई पड़ती है। माइक लगाने से पहले ही वे बुदबुदाने लगती हैं- किडनी, बच्ची, इंसाफ। मैं कंबल में छिपे उनके हाथ टटोलती हूं। धीरे-धीरे वे पिघलने लगती हैं।

बेटी का बचपन?

6 भाई-बहनों में दूसरे नंबर की थी। हम उसे भट्टो बुलाते। बड़ी-बड़ी आंखें थीं उसकी, बिल्कुल पिता की तरह। हंसती तो हंसते ही जाती। खेलती तो दिनभर खेले ही जाए। काम शुरू किया तो काम ही करने लगी। सारा घर किसी आदमी की तरह संभाल लिया। जुनूनी थी मेरी बच्ची।

कहते हुए मां की आवाज भरभराती है। गर्म-गर्म आंसू आंखों की कोर तक पहुंच अटक जाते हैं कि तभी कोई आकर उन्हें ‘बताने की लिमिट पर इन्सट्रक्ट’ करने लगा। मैं तसल्ली देती हूं- हम पुलिस वाले एंगल पर कोई बात नहीं करेंगे। बस आप और आपकी बेटी! टोकने वाला कहता है- जल्दी कीजिए, इनकी तबीयत खराब हो रही है। मैं बिना जल्दी किए बैठी रहती हूं, जब तक कि मां दोबारा नहीं बोल पड़ती।

उसे चटर-मटर खाने का खूब शौक था। हर हफ्ते बोलती- मम्मी, चिकन बनाओ! कभी खुद ही किचन में भिड़ जाती थी। उसके हाथ में मुझसे ज्यादा स्वाद था। शौकीन थी तो शौक पूरा करना भी आता। सजने का शौक था, तो दूसरों से कुछ नहीं मांगा। खुद कमाती। अपने लिए भी लाती, और बाकी भाई-बहनों के लिए भी। इसी नए साल पर मेरे लिए दो गर्म सूट और भाईयों के लिए नए कपड़े लाई। सब धरे रह गए।

‘वे तोहफे कहां हैं?’

उस घर में, हम तो हादसे के बाद से भाई के यहां है। दिल्ली की हाड़-कंपाऊं सर्दी का असर हो, या उदासी का, लेकिन मां की आवाज में दुख जम गया लगता है। वो धीरे-धीरे बोल रही है। बमुश्किल 5 मिनट की बात के बीच 10 बार कोई न कोई आ चुका। मुझे फिर तबियत के हवाले से जल्दी करने को कहा जाता है। छोटे से कमरे में भीड़ बढ़ रही है।

आखिरी बार बेटी को गले कब लगाया?

देर तक चुप्पी के बाद आवाज आती है- याद नहीं। बच्चे बड़े हो जाते हैं तो गले कहां लगते है। वो अपनी ही धुन में रहते है। मां की आंखें खोई हुई हैं, जैसे आखिरी बार बिटिया को कसकर भींचने की याद कर रही हो। शायद तब अंजलि 7 बरस की रही हो, या 11 बरस की! कोई शरारत की होगी, जिसके बाद हंसती हुई मां ने उसे हुलसकर गले से लगा लिया होगा! या फिर गुस्से के बाद प्यार बरसा हो! जो भी हुआ हो, सालों पुरानी उस याद की कोई तस्वीर अब उनके पास नही। मैं उन्हें कंबल ओढ़ाते हुए एक सवाल और करती हूं- घर का गुजारा कैसे चलता है? पैसे वगैरह!

वही कमाती -खिलाती थी। आदमी बन गई थी। सब्जी-भाजी हो, या मेरी दवा, सब वही लाती। अपने लिए रिश्ता आया तो छोटी बहन की शादी करा दी। इवेंट्स में फूल छींटने और नमस्ते करने का काम करती। उसी से कुछ थोड़ी-बहुत कमाई होती। घर ससुरालियों से बंटवारे में मिला था।

सब चला गया- कमउम्र में पति, जवान बच्ची समेत उम्मीदें भी खो चुकी इस मां की भर्राई आवाज शोर में खो रही है। अंदर-बाहर भीड़ ही भीड़। मैं बाहर निकल आती हूं, पलटती हूं तो घर का वो कमरा बंद दिखता है। ऊपर पुराना फूलदार परदा पड़ा हुआ। शायद मां की तबियत खराब हो चुकी।

वैसे मंगोलपुरी में रहते उनके भाई के इस घर से अगर पुलिसवालों को गायब कर दें तो लगेगा जैसे शादी वाले घर में हों। ऊंची आवाज में बतियाते लोग। मुंडियों से मुंडियां जोड़े लोग। प्लास्टिक के गिलास में बंटता गर्म पानी और बिछी हुई कुर्सियां, जिनपर बूढ़े या पत्रकार विराजे हैं। गली के मुहाने से ही जमघट दिखने लगेगा। घर के सामने अलाव जलाए कुछ महिलाएं हैं। अंजलि की रिश्तेदार। मैं भी आग तापने के बहाने बैठकर बात करने लगती हूं कि तभी कोई टोकता है- मीडिया से कोई कुछ नहीं कहेगा। फिर मेरी तरफ मुड़कर कहता है- ‘आप तो जानती हैं औरतों के हाल’!

चार कदम आगे एक झुंड बतिया रहा है। ये पास-पड़ोस के लोग है। हल्के-फुल्के अंदाज में टटोला तो एक कहता है- ‘तीन रात से सोए नहीं। आसपास जब ‘कांड’ होगा तो और क्या होगा!’ मैं मानना चाहती हूं कि कांड शायद लोकल डिक्शनरी का सामान्य शब्द है, लेकिन दिल इजाजत नहीं देता। कांड कहने वाले चेहरे समेत लगभग सारे चेहरों के भाव इसकी इजाजत नहीं देते।

हिट एंड रन का मामला भी कांड बन सकता है, अगर उसमें लड़की शामिल हो। वो भी जवान। तिसपर कमाने वाली। और शौकीन! मामला आधी रात का हो, तब तो सब्जी के सारे मसाले पीछे छूट जाएंगे। कम से कम मंगोलपुरी के उस अनाम घर के सामने जमा भीड़ को देखकर तो यही लगा। सबके पास मृतका को लेकर एक्सक्लूजिव जानकारी थी। कईयों के पास ऐसी, जिसे लिखना भी यहां मुनासिब नही।

हमारा अगला पड़ाव यहां से लगभग 2 किलोमीटर दूर करण विहार था, जहां अंजलि अपने परिवार के साथ रहती। खुदी हुई सड़क पर पैदल ही आगे बढ़ी तो किसी ने टोका- गली कच्ची है। संभलकर! मैं संभलकर देखती हूं। टूटे-अधपके मकान आपस में सटे हुए। दोनों तरफ चौड़ी बजबजाती नालियां। रास्ता पूछने के लिए ठहरने पर किसी से नाली की बात पूछी तो कहने लगा- नालियां बनते-बनते कई सरकारें बदल जाएंगी। आप अगली सरकार में लौटिएगा। सब ऐसा ही मिलेगा! बोल रहा शख्स यहीं कबाड़ बेचने का काम करता है। वही मुझे अंजलि के घर के पास तक छोड़ आता है, जिसके चारों ओर नाकेबंदी थी।

यहां भी वही नजारा। पुलिस. भीड़। और गॉसिप. दोपहर हो चुकी। अब तक कहानी में नया एंगल ये निकला कि लड़की अकेली नहीं, बल्कि सहेली के साथ थी, और कथित तौर पर नशे में भी। यहां तक कि होटल बुकिंग की बात भी सामने आ रही थी। इतना काफी था। बेचारी… इंसाफ… चिल्लाते लोग अब खुसफुसाते हुए उसके जाने-लौटने पर बात करने लगे।

ऑफ-कैमरा एक सज्जन कहते हैं- माहौल ऐसा हो चुका कि हमको भी अपनी बहन-बेटियों का देखना होगा। 4 पैसों के लिए घर से बाहर भेजें, उसकी बजाए रूखी खाएंगे। इज्जत तो रहेगी। सज्जन की आंखें मुझे भी शक से देख रही है।

मंगोलपुरी से लेकर करण विहार और दिल्ली से लेकर मुंबई तक को शायद अगले कई दिनों की खुराक मिल चुकी। बीते साल श्रद्धा थी। इस साल अंजलि। और ठीक 10 साल पहले निर्भया। रात-लड़की-आजादी का ये कॉकटेल इस मामूली संवेदना को भी भुला चुका कि 20 साल की वो बच्ची घर की अकेली आस थी। दिल्ली की सड़कों पर 31 दिसंबर की उस रात एक लड़की नहीं, बल्कि एक उम्मीद की लाश घिसकर लिथड़ रही थी।

बातचीत का सिलसिला खत्म हो चुका। दोपहर हो रही है। लौटते हुए लोधी रोड के पास चाय की टपरी देखकर ठहरते हैं तो एक शख्स सीधे-सीधे पूछता है- ‘कंझावला वाले मामले में कुछ ‘गलत’ हुआ है क्या?’ गलत यानी संस्कारी जबान में रेप-छेड़खानी! गाड़ी पर संस्थान का स्टिकर लगा है। हम बिना जवाब दिए वापस लौट पड़ते है।