मकबूल फिल्म में कहानी के हर पहलू का समर्थन इस बात से किया गया है कि “शक्ति का संतुलन बना रहना चाहिए” आग के मन में पानी का डर जरूरी है| भारत के संविधान के निर्माताओं ने भी इस बात को खूब समझा और शासन की शक्ति को तीन भागो में बाट दिया|
आज के भारत में यह शक्ति का संतुलन बिगड़ता दिख रहा है| एक तरफ जहा सदन के शीतकालीन सत्र में उप-राष्ट्रपति ने नयायमूर्तियो की चयन की प्रक्रिया पर सवाल उठाये तो वही मुख्यमंत्रियों का राज्यपालों से मन-मुटाव आम हो चुका है| केंद्रीय जांच एजेंसियो का विपक्ष पर बने रहना और सरकार और सरकार के साथियो की समीक्षा किये बिना देश के लोगो के सामने उनकी अच्छी छवि रखना उनके पैर में बेड़िया दर्शाती है| और मीडिया के तो क्या कहने, आखिर हम खुद जिस चीज़ का हिस्सा है उसे गाली भी कैसे दे ले| शायद यही सरकारी वयवस्था में काम कर रहे लोगो का भी दुःख हो सकता है|
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के भारत के मुख्य न्यायधीश बनने के बाद सरकार ने न्यायमूर्ति की चयन प्रक्रिया पर कई सवाल उठाए है| सरकार का मानना है कि अगर न्यायमूर्तियों की चयन प्रक्रिया में सरकार का हस्तक्षेप होगा तो भारत के न्यायालयों में रिक्त पद खत्म हो जायेंगे| हाल में ही सरकार ने न्यायमूर्तियों के चयन के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए नामो में से 20 नामो को वापस भेज दिया जिसमे से 9 नाम सर्वोच्च न्यायलय ने दोबारा भेजे थे|
सरकार के न्यायमूर्तियों के चयन प्रक्रिया में हस्तक्षेप न्यायालयों को सरकार के आधीन ला देता है और उनकी सवतंत्रता पे सवाल खड़े करता है| इसे और समझने के लिए एक नज़र भारत के चुनाव आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया पे भी डालते है| भारत में 3 चुनाव आयुक्त होते है और इनमे से एक मुख्य चुनाव आयुक्त होता है| फैसले तीनो आयुक्तों की सहमति से होता है| मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया संविधान में है पर बाकि दो चुनाव आयुक्तो को सरकार कभी भी हटा सकती है| ऐसे में चुनाव आयोग सरकार के खिलाफ फैसले नहीं ले सकता क्योंकि बाकि के दो आयुक्तों को सरकार का डर होता है|
वहीं दूसरी तरफ न्यायपालिका से सरकार की उम्मीद है कि न्यायपालिका सरकार के हर फैसले को सही ठहरा दे और सरकार की नीतियों में हस्तक्षेप कम से कम हो|
जहां पर विपक्ष की सरकार है वहां पर सरकार में स्थिरता 2014 के बाद से कम ही दिखाई दी है| सत्ता पक्ष के नेताओ का पार्टी बदलना आम बात है| मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र इसके उदाहरण है। इसमें राज्यपालों की भूमिका पर भी कई सवाल उठे है| राज्यपाल संवैधानिक मूल्य भूल कर केंद्र सरकार के पक्ष में खड़े दिखाई देते है| लोगो द्वारा चुनी हुए सरकार को नज़र अंदाज करते हुए, राज्यपालों का सरकारी अफसरों को सीधा निर्देश देना आम हो गया है| राज्यपाल कुछ मामलो में सरकार को भ्रस्ट भी घोषित कर चुकी है| जो काम पुलिस और जांच एजेंसियो का है| केरला ने राज्यपाल के बढ़ते हस्तक्षेप को रोकने के लिए केरला सरकार ने राज्यपाल को विश्वविधालयों के कुलपति के पद से हटाने के लिए सदन में बिल पारित भी कर दिया|
इससे पहले भी मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच मतभेद होते थे और कई आयोग ने इस बारे में सुझाव दिया पर किसी भी सरकार ने उन सुझावों को लेकर न संविधान में संशोधन किया और न ही कोई कानून बनाया| अपनी शक्तियां भला कौन त्यागना चाहता है|
हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक एल.आई.सी. का अडानी में निवेश पूरे बीमा क्षेत्र का 98.9 प्रतिशत है| एल.आई.सी. सरकारी कंपनी है| जिसका नियंत्रण सरकार के हाथ में है| एल.आई.सी. का अडानी कंपनी में भारी निवेश कई सवाल खड़े करता है पर जांच एजेंसियो ने कभी एल.आई.सी से नहीं पूछा कि सारे बिमा क्षेत्र में आप ने ही क्यों अडानी में इतना निवेश किया है|
आरटीआई कार्यकर्ता कन्हैया कुमार के द्वारा मांगी गई जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि में लाभार्थियों में 2019 से अब तक 67 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है| जिसका मतलब यहाँ है कि स्कीम ने पहले 67 प्रतिशत अवैध लाभार्थी थे| यह स्कीम को 2019 में चुनाव से पहले जल्दबाजी में लाया गया था और बिना लाभार्थी की योग्यता की जांच के पैसे बाटे गए थे| खैर चुनाव में सरकार को वोट भी चाहिए थे| पर जांच एजेंसियो ने न इसकी जांच की न ही किसी पे इसकी जवाबदेही तय की|
2G घोटाले में सी.ए.जी. ने सिर्फ अनुमान लगाकर उसे घोटाला बता दिया था पर कोर्ट के सामने इसे साबित नहीं कर पायी| ऐसी सी.ए.जी. अब के सालो में दिखाए नहीं देती| जहाँ पर विपक्ष की सरकार है वहाँ पे जांच एजेंसी हर चीज़ पे नज़र रखती है और सरकार के हर काम की समीक्षा भी जरुरी है पर इसमें सरकारों के बीच भेदभाव नहीं होना चाहिए|
जब अँगरेज़ देश छोड़ के गए थे तो उन्होंने कहा था कि भारत अपनी विभिन्नताओं के वजन से ही मर जाएगा| पर यह सालो से बना शक्ति का संतुलन ही था जिसने इसे चला कर रखा| इंदिरा गाँधी के बाद 42वाँ संसोधन संविधान का सबसे बड़ा संसोधन था जिसमे शक्ति के संतुलन को दोबारा बनाया गया ताकि फिर कोई देश में तानाशाह न बन सके|
शांति से समृद्धि आती है पर समृद्धि से शांति नहीं| दुनिया में कई देश इस बात के उदहारण है| हमारे देश में शक्ति का संतुलन बिगड़ता दिख रहा है| संस्थाओ को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए और बिना पक्ष-पात के अपनी शक्तियों का उपयोग करना चाहिए| इसमें ही सबका हित है|
यह विचार लेखक के खुद के है