रामपुर: पीएम मोदी की अगुवाई में एनडीए ने 400 पार का नारा दिया है। वही मोदी सरकार को हैट्रिक लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस और सपा सहित राजनीतिक दलों ने गठबंधन किया है। देश के अलग-अलग हिस्सों में कांग्रेस और भाजपा के नेताओं का दल बादल का सिलसिला जारी है। ठीक इसके उलट सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान (Azam Khan) ने अपने गठबंधन के चार नेताओं का शिकार कर डाला है।
इंडिया गठबंधन मोदी सरकार को हैट्रिक लगाने से रोकने के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश में पुरजोर कोशिशों में जुटा है। मामूली राजनीतिक उठा पटक के बीच सीटों का बंटवारा भी हो चुका है। हालांकि यह बात अलग है कि अभी कांग्रेस 17 सीटों के लिए प्रत्याशियों के नाम की घोषणा नहीं कर पाई है, जबकि भारी मन से उसे अपनी कुछ परंपरागत सीटों को ना चाहते हुए भी छोड़ना पड़ा है। इनमें से एक रामपुर की लोकसभा सीट भी है। यहां पर 10 बार कांग्रेस ने चुनाव जीता है और आज भी यहां की पूर्व सांसद बेगम नूर बानो जनता के बीच खासा असर रखती हैं और सपा से गठबंधन होने से पहले वह अपनी दावेदारी को मजबूती के साथ रखती हुई नजर भी आई थी। किंतु सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान के कड़े तेवरो के चलते और बेगम नूर बानो की दावेदारी को दरकिनार कर कांग्रेस ने भारी मन से इस सीट को सपा के लिए छोड़ दिया।
कांग्रेस की दावेदारी के लिहाज से 1952 में पहले आम चुनाव में यहां से कांग्रेस के टिकट पर मौलाना अबुल कलाम आजाद चुनकर संसद पहुंचे थे और उनके बाद रामपुर रियासत के अंतिम नवाब रजा अली खान के दामाद नवाब मेहंदी 1957 से 1967 तक दो बार कांग्रेस के टिकट पर ही चुनाव जीते। 1967 से 1977 तक नवाब रजा अली खान के मझले बेटे नवाब जुल्फिकार अली खान उर्फ मिक्की मियां ने कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विजय श्री हासिल की।
हालांकि यह बात अलग है कि वह 1977 में लोक दल प्रत्याशी राजेंद्र शर्मा से चुनाव हार गए, लेकिन 1980, 1984 तथा 1989 तक वही फिर से चुनाव जीतते रहे। 1991 में एक बार फिर आम चुनाव में नवाब जुल्फिकार अली खान को भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे राजेंद्र शर्मा ने शिकस्त दे दी। वर्ष 1992 में एक सड़क हादसे के दौरान नवाब जुल्फिकार अली खान की मौत हो गई। इसके बाद उनकी पत्नी बेगम नूरबानो उनकी सियासी विरासत को संभालते हुए वर्ष 1996 में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव मैदान में उतरी और भारी मतों से जीत हासिल की। लेकिन 1998 में वह भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी से चुनाव हार गई थी। फिर एक बार 1999 में आम चुनाव हुए, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर ही चुनाव लड़कर भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी को करारी शिकस्त दी थी।
वर्ष 2004 में सपा की टिकट पर फिल्म अभिनेत्री जयप्रदा चुनाव मैदान में उतरी और उन्होंने कांग्रेस की बेगम नूर बानो और भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी को हराकर इस सीट पर कब्जा जमा लिया। वर्ष 2009 में हुए आम चुनाव में जयप्रदा ने एक बार फिर से अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म खान (Azam Khan) की भारी मुखालफत के बाद भी सपा के टिकट पर ही जीत हासिल की थी। वर्ष 2014 में भाजपा के डॉक्टर नेपाल सिंह ने आजम खान की करीबी सपा के नसीर अहमद खान को चुनाव मैदान में हराकर कमल खिलाया।
वर्ष 2019 में सपा नेता आज़म खान (Azam Khan) ने भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरी जयप्रदा को 1 लाख 9 हजार वोटो के भारी अंतर से शिकस्त देकर यह सीट अपने नाम कर ली। वर्ष 2022 में आजम खान को विधायक चुने जाने के बाद अपनी सांसदी से इस्तीफा देना पड़ा, जिसके बाद उनके करीबियों में गिने जाने वाले घनश्याम सिंह लोधी ने पर बदल दिया और वह इस उप चुनाव में भाजपा की टिकट पर मैदान में उतरे। उन्होंने आजम खान के ही दूसरे करीबी सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे आसिम राजा को हराकर पार्टी का कमल खिलाया।
कुल मिलाकर इस सीट पर 10 बार कांग्रेस जबकि सिर्फ तीन बार ही सपा जीत हासिल कर पाई है। इस मुस्लिम बाहुल्य सीट पर वर्तमान समय कांग्रेस के लिए काफी मुफीद माना जा रहा था लेकिन आजम खान के रसूख के चलते कांग्रेसियों के अरमान धरे रह गए और यह सीट सपा के खाते में चली गई। राजनीतिक पंडितों की माने तो कांग्रेस के पास बेगम नूरबानो जैसा मजबूत प्रत्याशी मौजूद था और कांग्रेस वर्करों की लंबी चौड़ी फौज भी जमीनी स्तर पर उतर चुकी थी। जबकि ठीक इसके उलट आजम खान की अगर मौजूदगी में सपा के पास कोई ज़िताउ उम्मीदवार दूर से दूर तक नजर नहीं आ रहा है।

समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म खान (Azam Khan) की सियासी अदावत हमेशा से ही रामपुर के नवाब खानदान से रही है। यही कारण है कि उन्होंने अपने मंत्री रहने के दौरान भाजपाइयों के बजाय कांग्रेसियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाया था। आजम खान की सियासी अदावत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके दुश्मनों की अप्रत्यक्ष फहरिस्त में पहला नाम पूर्व सांसद बेगम नूर बानो के बेटे पूर्व मंत्री नवाब काजिम अली खान और दूसरे नंबर पर उनके पोते नवाबजादा हैदर अली खान उर्फ हमजा मियां का रहा है। यही कारण है कि आजम खान स्वयं चुनाव के लिए कोर्ट से 7 साल की सजा मिलने के बाद आयोग्य होने के बावजूद किसी भी सूरत में नवाब खानदान की बेगम नूरबानो को कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में नहीं देखना चाहते थे।
आजम खान की अदावत का पहला शिकार भारी जन समर्थन के बावजूद भी कांग्रेस की बेगम नूर बानो हुई। उनका दूसरा शिकार मुरादाबाद के सपा सांसद एसटी हसन का टिकट कटवा कर वह हुए। उनका तीसरा शिकार सपा मुखिया के प्रत्याशी का बहिष्कार कराकर अखिलेश यादव हुए। इसी तरह रामपुर सीट से अखिलेश यादव के प्रत्याशी मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी चौथे शिकार होते नजर आ रहे हैं। एक तीर से दो शिकार होने वाली कहावत तो लंबे समय से सुनी जाती रही है लेकिन सियासत के माहिर खिलाड़ी के रूप में विख्यात सपा नेता आज़म खान ने जेल में बंद रहने के बाद भी एक तीर से चार शिकार कर डाले है।
सियासी गलियारों में भले इस बात की चर्चा हो कि आजम खान अपने तरकश में रखे तीरों का इस्तेमाल करते हुए अखिलेश यादव को ज्यादा नुकसान और भाजपा प्रत्याशी को अधिक फायदा पहुंचाने का मंसूबा बना रहे हैं। लेकिन इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि अड़ियल रवैया रखने वाले आजम खान का अंदरखाने भाजपा से समझौता हुआ होता तो वह किसी भी हालत में जेल के अंदर ना होते।
अखिलेश यादव ने आजम खान (Azam Khan) की भावनाओं को दरकिनार कर जो प्रत्याशी मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी के रूप में उन पर और उनके समर्थकों पर थोपने की जो कोशिश की है वह आजम खान की हां के बिना गठबंधन के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है। आजम खान आज भले ही सीतापुर की जेल में बंद हो,मगर उनका सियासी सफर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उम्र से कहीं बढ़कर रहा है। वर्ष 2009 में जब आजम खान उनकी बिना मर्जी की फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा को लोकसभा का प्रत्याशी घोषित करने पर पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से खफा हो गए थे लेकिन उन्हें पार्टी से निष्कासित तक होना पड़ा था। बावजूद इसके मुलायम सिंह यादव को भी आजम खान की वजह से इसका खमियाज़ा उस समय डिंपल यादव के कन्नौज की लोकसभा की सीट हार जाने से भुगतना पड़ा था।
आज़म खान भले ही आज जेल में बंद है लेकिन वह उन गिने हुए नेताओं में शुमार है जिन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, बहाने प्रसाद वर्मा के साथ मिलकर समाजवादी पार्टी बनाई थी। वर्तमान समय में आजम खान कोर्ट से सजा मिलने के बाद जेल में बंद है और जब तक उनके हक में कोर्ट का कोई निर्णय नहीं आ जाता तब तक वह किंग बनने से कोसों दूर है जबकि ठीक इसको उलट वह किंग मेकर की भूमिका में हमेशा लोगों के बीच बने रहेंगे।
अगर अखिलेश यादव के द्वारा आजम खान (Azam Khan) को अपनी हठधर्मी दिखाई गई तो इसका खामियाजा लंबे समय तक सपा को भुगतना पड़ सकता है। आजम खान की उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्या हैसियत है? यह अखिलेश यादव के स्वर्गीय पिता मुलायम सिंह यादव 2009 के चुनाव में देख चुके थे। समय के चक्र ने एक बार फिर से वर्ष 2024 में आजम खान को पार्टी के नए मुखिया अखिलेश यादव के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। अब देखने वाली बात ही होगी कि वर्चस्व की लड़ाई में जीत किसकी होगी? हालांकि यह बात अलग है कि आजम खान के दो करीबियों आसिम राजा और हाफिज अब्दुल सलाम ने नामांकन पत्र दाखिल करने के बाद उनका पैगाम खुलेमन से अखिलेश यादव को जरूर दे दिया है।